Lekhika Ranchi

Add To collaction

मुंशी प्रेमचंद ः कर्मभूमि

...

अमरकान्त की आहट पाते ही सुखदा संभल बैठी। उसके पीले मुख पर ऐसी करूण वेदना झलक रही थी कि एक क्षण के लिए अमरकान्त चंचल हो गया।
अमरकान्त ने उसका हाथ पकड़कर कहा-चलो, भोजन कर लो। आज बहुत देर हो गई।
'भोजन पीछे करूंगी, पहले मुझे तुमसे एक बात का फैसला करना है। तुम आज फिर दादाजी से लड़ पड़े?'
'दादाजी से मैं लड़ पड़ा, या उन्हीं ने मुझे अकारण डांटना शुरू किया?'
सुखदा ने दार्शनिक निरपेक्षता के स्वर में कहा-तो उन्हें डांटने का अवसर ही क्यों देते हो- मैं मानती हूं कि उनकी नीति तुम्हें अच्छी नहीं लगती। मैं भी उसका समर्थन नहीं करती लेकिन अब इस उम्र में तुम उन्हें नए रास्ते पर नहीं चला सकते। वह भी तो उसी रास्ते पर चल रहे हैं, जिस पर सारी दुनिया चल रही है। तुमसे जो कुछ हो सके, उनकी मदद करो जब वह न रहेंगे उस वक्त अपने आदर्शों का पालन करना। तब कोई तुम्हारा हाथ न पकड़ेगा। इस वक्त तुम्हें अपने सिध्दांतों के विरूद्वद्व' भी कोई बात करनी पड़े, तो बुरा न मानना चाहिए। उन्हें कम-से-कम इतना संतोष तो दिला दो कि उनके पीछे तुम उनकी कमाई लुटा न दोगे। मैं आज तुम दोनों की बातें सुन रही थी। मुझे तो तुम्हारी ही ज्यादती मालूम होती थी।
अमरकान्त उसके प्रसव-भार पर चिंता-भार न लादना चाहता था पर प्रसंग ऐसा आ पड़ा था कि वह अपने को निर्दोष ही करना आवश्यक समझता था। बोला-उन्होंने मुझसे साफ-साफ कह दिया, तम अपनी फिक्र करो। उन्हें अपना धन मुझसे ज्यादा प्यारा है।
यही कांटा था, जो अमरकान्त के हृदय में चुभ रहा था।
सुखदा के पास जवाब तैयार था-तुम्हें भी तो अपना सिध्दांत अपने बाप से ज्यादा प्यारा है- उन्हें तो मैं कुछ नहीं कहती। अब साठ बरस की उम्र में उन्हें उपदेश नहीं दिया जा सकता। कम-से-कम तुमको यह अधिकार नहीं है। तुम्हें धन काटता हो लेकिन मनस्वी, वीर पुरुषों ने सदैव लक्ष्मी की उपासना की है। संसार को पुरुषार्थियों ने ही भोगा है और हमेशा भोगेंगे। त्याग गृहस्थों के लिए नहीं है, संन्यासियों के लिए है। अगर तुम्हें त्यागव्रत लेना था तो विवाह करने की जरूरत न थी, सिर मुड़ाकर किसी साधु-संत के चेले बन जाते। फिर मैं तुमसे झगड़ने न आती। अब ओखली में सिर डाल कर तुम मूसलों से नहीं बच सकते। गृहस्थी के चरखे में पड़कर बड़े-बड़ों की नीति भी स्खलित हो जाती है। कृष्ण और अर्जुन तक को एक नए तर्क की शरण लेनी पड़ी।
अमरकान्त ने इस ज्ञानोपदेश का जवाब देने की जरूरत न समझी। ऐसी दलीलों पर गंभीर विचार किया ही नहीं जा सकता था। बोला-तो तुम्हारी सलाह है कि संन्यासी हो जाऊं-
सुखदा चिढ़ गई। अपनी दलीलों का यह अनादर न सह सकी। बोली-कायरों को इसके सिवाय और सूझ ही क्या सकता है- धन कमाना आसान नहीं है। व्यवसायियों को जितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, वह अगर संन्यासियों को झेलनी पड़ें, तो सारा संन्यास भूल जाए। किसी भले आदमी के द्वार पर जाकर पड़े रहने के लिए बल, बुध्दि विद्या, साहस किसी की भी जरूरत नहीं। धनोपार्जन के लिए खून जलाना पड़ता है मांस सुखाना पड़ता है। सहज काम नहीं है। धन कहीं पड़ा नहीं है कि जो चाहे बटोर लाए।
अमरकान्त ने उसी विनोदी भाव से कहा-मैं तो दादा को गद़दी पर बैठे रहने के सिवाय और कुछ करते नहीं देखता। और भी जो बड़े-बड़े सेठ-साहूकार हैं उन्हें भी फूलकर कुप्पा होते ही देखा है। रक्त और मांस तो मजदूर ही जलाते हैं। जिसे देखो कंकाल बना हुआ है।
सुखदा ने कुछ जवाब न दिया। ऐसी मोटी अक्ल के आदमी से ज्यादा बकवास करना व्यर्थ था।
नैना ने पुकारा-तुम क्या करने लगे, भैया आते क्यों नहीं- पकौड़ियां ठंडी हुई जाती हैं।
सुखदा ने कहा-तुम जाकर खा क्यों नहीं लेते- बेचारी ने दिन-भर तैयारियां की हैं।
'मैं तो तभी जाऊंगा, जब तुम भी चलोगी।'
'वादा करो कि फिर दादाजी से लड़ाई न करोगे।'
अमरकान्त ने गंभीर होकर कहा-सुखदा, मैं तुमसे सत्य कहता हूं, मैंने इस लड़ाई से बचने के लिए कोई बात उठा नहीं रखी। इन दो सालों में मुझमें कितना परिवर्तन हो गया है, कभी-कभी मुझे इस पर स्वयं आश्चर्य होता है। मुझे जिन बातों से घृणा थी, वह सब मैंने अंगीकार कर लीं लेकिन अब उस सीमा पर आ गया हूं कि जौ भर भी आगे बढ़ा, तो ऐसे गर्त में जा गिरूंगा, जिसकी थाह नहीं है। उस सर्वनाश की ओर मुझे मत ढकेलो।

सुखदा को इस कथन में अपने ऊपर लांछन का आभास हुआ। इसे वह कैसे स्वीकार करती- बोली-इसका तो यही आशय है कि मैं तुम्हारा सर्वनाश करना चाहती हूं। अगर अब तक मेरे व्यवहार का यही तत्व तुमने निकाला है, तो तुम्हें इससे बहुत पहले मुझे विष दे देना चाहिए था। अगर तुम समझते हो कि मैं भोग-विलास की दासी हूं और केवल स्वार्थवश तुम्हें समझाती हूं तो तुम मेरे साथ घोरतम अन्याय कर रहे हो। मैं तुमको बता देना चाहती हूं, कि विलासिनी सुखदा अवसर पड़ने पर जितने कष्ट झेलने की सामर्थ्य रखती है, उसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। ईश्वर वह दिन न लाए कि मैं तुम्हारे पतन का साधन बनूं। हां, जलने के लिए स्वयं चिता बनाना मुझे स्वीकार नहीं। मैं जानती हूं कि तुम थोड़ी बुध्दि से काम लेकर अपने सिध्दांत और धर्म की रक्षा भी कर सकते हो और घर की तबाही को भी रोक सकते हो। दादाजी पढ़े-लिखे आदमी हैं, दुनिया देख चुके हैं। अगर तुम्हारे जीवन में कुछ सत्य है, तो उसका उन पर प्रभाव पड़े बगैर नहीं रह सकता। आए दिन की झौड़ से तुम उन्हें और भी कठोर बनाए देते हो। बच्चे भी मार से जिद़दी हो जाते हैं। बूढ़ों की प्रकृति कुछ बच्चों की-सी होती है। बच्चों की भांति उन्हें भी तुम सेवा और भक्ति से ही अपना सकते हो।

अमर ने पूछा-चोरी का माल खरीदा करूं-
'कभी नहीं।'
'लड़ाई तो इसी बात पर हुई।'
'तुम उस आदमी से कह सकते थे-दादा आ जाएं तब लाना।'
'और अगर वह न मानता- उसे तत्काल रुपये की जरूरत थी।'
'आप'र्म भी तो कोई चीज है?'
'वह पाखंडियों का पाखंड है।'
'तो मैं तुम्हारे निर्जीव आदर्शवाद को भी पाखंडियों का पाखंड समझती हूं।'
एक मिनट तक दोनों थके हुए योद्वाओं की भांति दम लेते रहे। तब अमरकान्त ने कहा-नैना पुकार रही है।
'मैं तो तभी चलूंगी, जब तुम वह वादा करोगे।'
अमरकान्त ने अविचल भाव से कहा-तुम्हारी खातिर से कहो वादा कर लूं पर मैं उसे पूरा नहीं कर सकता। यही हो सकता है कि मैं घर की किसी बात से सरोकार न रखूं।
सुखदा निश्चयात्मक रूप से बोली-यह इससे कहीं अच्छा है कि रोज घर में लड़ाई होती रहे। जब तक इस घर में हो, इस घर की हानि-लाभ का तुम्हें विचार करना पड़ेगा।
अमर ने अकड़कर कहा-मैं आज इस घर को छोड़ सकता हूं।
सुखदा ने बम-सा फेंका-और मैं-
अमर विस्मय से सुखदा का मुंह देखने लगा।
सुखदा ने उसी स्वर में कहा-इस घर से मेरा नाता तुम्हारे आधार पर है जब तुम इस घर में न रहोगे, तो मेरे लिए यहां क्या रखा है- जहां तुम रहोगे, वहीं मैं भी रहूंगी।
अमर ने संशयात्मक स्वर में कहा-तुम अपनी माता के साथ रह सकती हो।
'माता के साथ क्यों रहूं- मैं किसी की आश्रित नहीं रह सकती। मेरा दु:ख-सुख तुम्हारे साथ है। जिस तरह रखोगे, उसी तरह रहूंगी। मैं भी देखूंगी, तुम अपने सिध्दांतों के कितने पक्के हो- मैं प्रण करती हूं कि तुमसे कुछ न मांगूंगी। तुम्हें मेरे कारण जरा भी कष्ट न उठाना पड़ेगा। मैं खुद भी कुछ पैदा कर सकती हूं, थोड़ा मिलेगा, थोड़े में गुजर कर लेंगे, बहुत मिलेगा तो पूछना ही क्या। जब एक दिन हमें अपनी झोंपड़ी बनानी ही है तो क्यों न अभी से हाथ लगा दें। तुम कुएं से पानी लाना, मैं चौका-बर्तन कर लूंगी। जो आदमी एक महल में रहता है, वह एक कोठरी में भी रह सकता है। फिर कोई धौंस तो न जमा सकेगा।
अमरकान्त पराभूत हो गया। उसे अपने विषय में तो कोई चिंता नहीं लेकिन सुखदा के साथ वह यह अत्याचार कैसे कर सकता था-
खिसियाकर बोला-वह समय अभी नहीं आया है, सुखदा ।
'क्यों झूठ बोलते हो तुम्हारे मन में यही भाव है और इससे बड़ा अन्याय तुम मेरे साथ नहीं कर सकते कष्ट सहने में, या सिध्दांत की रक्षा के लिए स्त्रियां कभी पुरुषों से पीछे नहीं रहीं। तुम मुझे मजबूर कर रहे हो कि और कुछ नहीं तो लांछन से बचने के लिए मैं दादाजी से अलग रहने की आज्ञा मांगू। बोलो?'
अमर लज्जित होकर बोला-मुझे क्षमा करो सुखदा मैं वादा करता हूं कि दादाजी जैसा कहेंगे, वैसा ही करूंगा।
'इसलिए कि तुम्हें मेरे विषय में संदेह है?'
'नहीं, केवल इसलिए कि मुझमें अभी उतना बल नहीं है।'
इसी समय नैना आकर दोनों को पकौड़ियां खिलाने के लिए घसीट ले गई। सुखदा प्रसन्न थी। उसने आज बहुत बड़ी विजय पाई थी। अमरकान्त झेंपा हुआ था। उसके आदर्श और धर्म की आज परीक्षा हो गई थी और उसे अपनी दुर्बलता का ज्ञान हो गया था। ऊंट पहाड़ के नीचे आकर अपनी ऊंचाई देख चुका था।

   1
0 Comments